Blog

Ensnews.in,,,,,वर्दी के पीछे छिपी इंसानियत: पुलिसवालों की अनकही कहानी

पदमराज सिंह,,,,,,जब कोई पुलिस की वर्दी पहनता है, तो समाज उसे एक नए नज़रिए से देखने लगता है। अचानक वह कोई आम इंसान नहीं रह जाता, बल्कि एक ‘कानून का रखवाला’ बन जाता है। उसकी भावनाएँ, इच्छाएँ, थकान और कमज़ोरियाँ सब जैसे गौण हो जाती हैं। समाज उससे उम्मीद करता है कि वह हमेशा अनुशासित रहे, हमेशा सतर्क रहे, कभी किसी पर ग़ुस्सा न करे, कभी किसी से हमदर्दी न जताए। लेकिन क्या वर्दी पहन लेने से किसी का हृदय कठोर हो जाता है? क्या कोई पुलिसवाला सचमुच अपराध, दुख और अन्याय देखकर भावनाहीन हो जाता है?

हर केस सिर्फ एक फाइल नहीं होता

जब कोई अपराध होता है, तो पुलिस के पास एक शिकायत आती है। एक एफआईआर लिखी जाती है, एक केस दर्ज होता है, और फिर उस पर जांच शुरू होती है। बाहर से देखने पर यह पूरी प्रक्रिया बहुत औपचारिक और नियमबद्ध लगती है, लेकिन जो लोग इस प्रक्रिया का हिस्सा होते हैं, वे जानते हैं कि हर केस सिर्फ एक फाइल नहीं होता, बल्कि उसमें किसी न किसी की जिंदगी जुड़ी होती है। जब एक पिता थाने में आता है और कहता है कि उसकी बेटी कल रात से लापता है, तो पुलिसवाले के लिए यह सिर्फ एक ‘गुमशुदगी की रिपोर्ट’ नहीं होती। वह खुद भी एक पिता हो सकता है, जिसे यह सोचकर रातों की नींद उड़ सकती है कि अगर उसकी बेटी के साथ ऐसा हुआ होता, तो वह कैसा महसूस करता। जब एक बूढ़ी माँ रोते हुए अपने बेटे की हत्या की रिपोर्ट लिखवाने आती है, तो पुलिसवाले के लिए यह सिर्फ एक ‘हत्या का मामला’ नहीं होता। वह यह समझ सकता है कि माँ के लिए यह केवल एक ‘जांच’ नहीं, बल्कि उसकी पूरी दुनिया के उजड़ जाने जैसा है। लेकिन इन सबके बावजूद, पुलिसवालों को अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखना पड़ता है। उन्हें हर हाल में कानून और तर्क के दायरे में रहकर काम करना होता है, क्योंकि अगर वे खुद भावनाओं में बह गए, तो शायद वे अपना कर्तव्य ठीक से निभा ही न सकें।

हर रोज़ एक नया इम्तिहान

एक पुलिसवाले के लिए हर दिन एक नया इम्तिहान होता है। कभी किसी को बचाने के लिए अपनी जान जोखिम में डालनी पड़ती है, कभी किसी निर्दोष को कानून के जाल से निकालने के लिए लड़ना पड़ता है, तो कभी समाज के उस हिस्से से भी भिड़ना पड़ता है, जो पुलिस को हमेशा शक की निगाह से देखता है। त्योहारों के दौरान, जब पूरा शहर रोशनी और खुशियों में डूबा होता है, तब पुलिसवाले बैरिकेड्स के पीछे खड़े होते हैं, यह सुनिश्चित करने के लिए कि कहीं कोई अप्रिय घटना न हो जाए। जब कोई बड़ा जुलूस या धरना प्रदर्शन होता है, तो उन्हें भीड़ को नियंत्रित करने के लिए कभी नरमी, तो कभी सख्ती बरतनी पड़ती है। रात को जब पूरा शहर गहरी नींद में सो रहा होता है, तब कोई पुलिसकर्मी अपनी बाइक पर गश्त कर रहा होता है, यह सुनिश्चित करने के लिए कि हर गली, हर मोहल्ला सुरक्षित रहे। लेकिन क्या किसी ने यह सोचा कि उसकी खुद की सुरक्षा की गारंटी कौन देगा?

ड्यूटी, स्वास्थ्य और मानसिक तनाव

पुलिस की नौकरी सिर्फ पेशा नहीं, बल्कि एक जीवनशैली होती है। यह 9 से 5 वाली नौकरी नहीं है, जहाँ आप शाम को दफ्तर से निकलकर अपने परिवार के साथ समय बिता सकें। पुलिसवालों की शिफ्ट कभी सुबह, कभी दोपहर, कभी रात की होती है। कभी वीआईपी ड्यूटी, कभी मेला सुरक्षा, तो कभी अपराधियों की धरपकड़ में लगातार 24 घंटे काम करना पड़ता है। इस अनियमित दिनचर्या का सीधा असर उनके स्वास्थ्य पर पड़ता है। अनियमित खानपान, लगातार तनाव, और पर्याप्त आराम न मिलने के कारण कई पुलिसकर्मी हाई बीपी, शुगर, हृदय रोग, मोटापा जैसी गंभीर बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। कई मामलों में डिप्रेशन और मानसिक तनाव इतना बढ़ जाता है कि कुछ पुलिसकर्मी आत्महत्या तक करने को मजबूर हो जाते हैं। हाल के वर्षों में कई ऐसे मामले सामने आए हैं, जहाँ अत्यधिक कार्यभार, मानसिक दबाव और पारिवारिक तनाव के चलते पुलिसवालों ने अपनी जान गंवाई है।

अपराधियों का बदला – पुलिस परिवार भी निशाने पर

अक्सर लोग यह मानते हैं कि पुलिसवालों को सिर्फ ड्यूटी पर ही खतरा होता है, लेकिन सच्चाई यह है कि कई बार उनके परिवार भी अपराधियों के निशाने पर आ जाते हैं। अपराधी या माफिया जब पुलिस की कार्रवाई से घबराते हैं, तो वे दबाव बनाने के लिए पुलिसकर्मियों के परिवार को नुकसान पहुँचाने की कोशिश करते हैं। हाल ही कई ऐसी घटनाएँ सामने आईं, जहाँ अपराधियों ने पुलिसवालों के परिजनों को निशाना बनाया। यह न सिर्फ पुलिस बल के लिए चिंता का विषय है, बल्कि पूरे समाज के लिए भी एक चेतावनी है कि अपराध से लड़ने वालों को उनके घर में भी सुरक्षित माहौल नहीं मिल पाता।

नेताओं का हस्तक्षेप – कानून और कर्तव्य के बीच संघर्ष

आज के समय में पुलिसवालों को सिर्फ अपराधियों से ही नहीं, बल्कि नेताओं और छुटभैये नेताओं के हस्तक्षेप से भी जूझना पड़ता है। कई बार प्रभावशाली व्यक्तियों के दबाव में निष्पक्ष जांच प्रभावित होती है। किसी पुराने विवाद में अपने राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए पुलिस से अपेक्षा की जाती है कि किसी निर्दोष व्यक्ति को फँसा दिया जाए। जब पुलिस निष्पक्षता से जांच करती है, तो वही लोग वरिष्ठ अधिकारियों से गलत शिकायतें कर पुलिसकर्मियों को मानसिक रूप से प्रताड़ित करने लगते हैं। पुलिस पर सबसे आसान और हमेशा किया जाने वाला शिकायत है “किसी मामले में लेनदेन।” जहां किसी के मनमाफिक कम नहीं किया वहां लोग वरिष्ठ अधिकारियों के समक्ष लेनदेन की शिकायत लेकर पहुंच जाते है। बहुत से मामलों में अधूरे वीडियो या फोटो वायरल होने पर पुलिस अधिकारियों को अपना पक्ष रखने का मौका नहीं मिलता और केवल एक वीडियो या फोटो के आधार पर, जिसकी सत्यता भी प्रमाणित नहीं होती, उन पर कार्यवाही कर दी जाती है।

फर्जी पत्रकारों और फर्जी पोर्टल संचालकों का दबाव

अब पुलिसवालों को अपराधियों और नेताओं के अलावा एक और बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है – फर्जी पत्रकार और फर्जी पोर्टल संचालक। आजकल कई ऐसे फर्जी लोग खुद को पत्रकार बताकर फर्जी न्यूज़ पोर्टल चला रहे हैं, जिनका असली मकसद खबरों के जरिए ब्लैकमेलिंग करना होता है। जब कोई पुलिसकर्मी नियम के अनुसार काम करता है और किसी की अवैध माँग पूरी नहीं करता, तो ये फर्जी पत्रकार झूठी और भ्रामक खबरें चलाने लगते हैं। छोटे-छोटे मामलों को सनसनीखेज बनाकर, आधे-अधूरे वीडियो और झूठी सूचनाओं के आधार पर पुलिस को बदनाम करने का प्रयास किया जाता है। बिना किसी प्रमाण के मनगढ़ंत खबरें फैलाई जाती हैं, जिससे न केवल पुलिसकर्मियों की छवि धूमिल होती है, बल्कि उनका मनोबल भी प्रभावित होता है। कई बार उच्च अधिकारी भी बिना सत्यता की जांच किए ऐसे मामलों में पुलिसकर्मियों पर अनुशासनात्मक कार्रवाई कर देते हैं, जिससे उनके मन में असुरक्षा की भावना उत्पन्न होने लगती है।

पुलिसवालों का सरदर्द है बेगारी

कई बार पुलिसकर्मियों को नेताओं से लेकर अन्य प्रभावशाली लोगों की बेगारी करनी पड़ती है। त्योहारों, वीआईपी दौरों या अन्य अवसरों पर पुलिसवालों को कानून व्यवस्था के अलावा कई बार ऐसी ड्यूटियाँ करनी पड़ती हैं, जिनका पुलिसिंग से कोई लेना-देना नहीं होता।

मामले में चूक होने पर मानसिक प्रताड़ना

काम की अधिकता और थकान के दौरान अगर किसी मामले में अपराधी के खिलाफ कार्यवाही में किसी प्रक्रिया की चूक हो जाए और वह रिहा हो जाए, तो वरिष्ठ अधिकारी अलग से जांच बिठा देते हैं। यह अपने आप में एक मानसिक प्रताड़ना होती है, क्योंकि पहले से ही अत्यधिक दबाव में काम कर रहे पुलिसकर्मी को और अधिक तनाव में डाल दिया जाता है।

बिना पुलिस के समाज की कल्पना असंभव

कोविड महामारी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। जब पूरा देश अपने घरों में सुरक्षित था, तब पुलिसकर्मी अपनी जान की परवाह किए बिना सड़कों पर डटे रहे। न सिर्फ लॉकडाउन का पालन करवाया, बल्कि जरूरतमंदों को खाना पहुँचाया, बीमारों को अस्पताल तक पहुँचाया और अपने परिवार से दूर रहकर लोगों की सेवा में लगे रहे।

वर्दी के पीछे का सच 

लोग अक्सर कहते हैं कि पुलिसवालों का दिल पत्थर का होता है, कि वे भावनाएँ महसूस नहीं करते। लेकिन सच यह है कि वे भी रोते हैं, वे भी हंसते हैं, वे भी डरते हैं, और सबसे ज़्यादा—वे भी थकते हैं। वे भी इंसान होते हैं, जिन्हें भी सम्मान की, प्यार की, और समझदारी की ज़रूरत होती है।

आखिर में…

जब अगली बार आप किसी पुलिसवाले को देखें, तो उसे सिर्फ उसकी वर्दी से मत पहचानिए। उसकी आँखों में देखिए, शायद वहाँ आपको भी वही थकान, वही दर्द और वही इंसानियत दिख जाए, जो हर किसी के अंदर होती है।

Back to top button

You cannot copy content of this page

error: Content is protected !!